इस गैरकानूनी कार्य से न केवल सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग हो रहा है, बल्कि मरीजों की सुरक्षा भी खतरे में है। बिना किसी पंजीयन और मानकों के इलाज करने से मरीजों को गलत इलाज और दवाइयों के दुष्प्रभाव का खतरा भी बढ़ जाता है।
भाटापारा शहर में स्वास्थ्य विभाग के कुछ महिला एवं पुरुष कर्मचारी शासकीय नियमों को दरकिनार कर अवैध रूप से निजी चिकित्सा सेवा चला रहे हैं। बिना किसी पंजीयन व अनुमति के ये कर्मचारी अपने घरों में मरीजों का इलाज कर रहे हैं, सरकारी दवाओं का उपयोग कर रहे हैं और निजी अस्पतालों की तरह मरीजों से शुल्क भी वसूल रहे हैं।


निजी प्रैक्टिस में व्यस्त, सरकारी कर्तव्यों की अनदेखी
सूत्रों के मुताबिक, कई स्वास्थ्य कर्मचारी अपने मूल कार्यस्थल पर नाममात्र की उपस्थिति दर्ज कराते हैं, जबकि अधिकांश समय निजी प्रैक्टिस में व्यस्त रहते हैं। सरकारी कर्मचारियों को निजी क्लीनिक या अस्पताल संचालित करने की अनुमति नहीं होती, इसके बावजूद यह अवैध रूप से स्वास्थ्य सेवाएं दे रहे हैं।
सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग और मरीजों की सुरक्षा से खिलवाड़
इस गैरकानूनी कार्य से न केवल सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग हो रहा है, बल्कि मरीजों की सुरक्षा भी खतरे में है। बिना किसी पंजीयन और मानकों के इलाज करने से मरीजों को गलत इलाज और दवाइयों के दुष्प्रभाव का खतरा भी बढ़ जाता है।

प्रशासन की चुप्पी पर उठे सवाल
स्थानीय प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग की इस मामले में चुप्पी सवाल खड़े कर रही है। आम जनता का कहना है कि ऐसे मामलों की तुरंत जांच कर दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की विश्वसनीयता बनी रहे और मरीजों का शोषण न हो।
क्या होगी सख्त कार्रवाई?
इस मामले में 23 मार्च को जिला कलेक्टर दीपक सोनी ने कहा था कि “जांच कराई जाएगी और नियम विरुद्ध कार्य करने वालों पर कार्रवाई होगी। सीएमएचओ को इस मामले में जांच के निर्देश दिए गए हैं।” लेकिन जब 27 मार्च को सीएमएचओ से बात की गई, तो उन्होंने कहा कि “बीएमओ को जांच के लिए निर्देश दिया गया है।” वहीं, 27 मार्च को जब भाटापारा बीएमओ डॉ. माहेश्वरी से संपर्क किया गया तो उन्होंने कहा कि “जांच करने का लेटर नहीं मिला है, लेटर मिलेगा तो जांच करेंगे।”
प्रशासनिक लापरवाही या दोषियों को बचाने की कोशिश?
इस बयानबाजी से साफ है कि प्रशासनिक स्तर पर गंभीर लापरवाही हो रही है। कलेक्टर से लेकर सीएमएचओ और फिर बीएमओ तक मामला केवल “जांच के निर्देश” और “लेटर मिलने” तक अटका हुआ है। अब सवाल उठता है कि क्या यह देरी जानबूझकर की जा रही है, ताकि दोषियों को बचाया जा सके? या फिर प्रशासनिक तंत्र में समन्वय की कमी है?
अब देखना होगा कि प्रशासन इस मामले पर कितनी तेजी से कार्रवाई करता है और मरीजों के हितों की सुरक्षा के लिए क्या ठोस कदम उठाए जाते हैं।